नारीवाद क्या है? ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि परिवार,समुदाय एवं समाज में स्त्रियों
की भूमिका कई कारकों के परस्पर क्रिया के परिणाम स्वरुप निर्धारित होती है जिसमे शामिल हैं जाति और जेंडर आधारित श्रम विभाजन, वर्गीय पृष्ठभूमि,समुदाय/जनजाति विशेष की भौगोलिक अवस्थितिएवं प्रजातीय उत्पत्ति।
उदाहरण के लिए आर्य संस्कृति के वर्चस्व वाले समाजों में महिलाओं की लैंगिकता, उर्वरता एवं श्रम पर सख्त नियत्रंण रहा है। द्रविड सस्ंकृति में महिलाओं को अपेक्षाकृत कम कठोर पितृसत्ता का सामना करना पड़ा। पिछले पांच हजार वर्षों में महिलाओं की हैसियत को हिन्दू, जैन, बौद्ध, इस्लाम, सिख, ईसाई एवं पारसी
जैसे धर्मों ने भी प्रभावित किया।
बारहवी से सोलहवीं शताब्दी के बीच हुए धार्मिक सुधार आन्दोलन, जिसने भक्ति आंदोलन एवं सूफीवाद जैसे मुक्तिकामी अध्यात्मवाद को भी जन्म दिया, महिलाओं से जुड़े मुद्दों को सामने लेकरआये। मीराबाई, लाल डेड़, अक्का महादेवी एवं बहिना बाई जैसी सतं कवयित्रियो ने महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतत्रंता एवं रचनात्मक प्रेरणा की अभिलाषा को शब्द दिए (कृष्णास्वामी, 1993)।

भारत में नारीवादी आंदोलन एवं महिला संगठनों की उत्पत्ति नारीवाद क्या है
उन्नीसवीं सदी में पाश्चात्य उदारवादी लोकतान्त्रिक मूल्यों से प्रभावित पुरुष समाज सुधारकों ने, ब्रिटिश प्रशासकों के अनुमोदन के साथ, कन्या शिशु हत्या, सती प्रथा, जीवन सेस्त्रियो के अलगाव, वैश्यावृत्ति एवं निराश्रित महिलाओं द्वारा भिक्षावृत्ति के विरुद्ध लड़ाई की प्रक्रिया आरम्भ की।
विधवा पुनर्विवाह के लिए इन्होनें सार्वजनिक कार्यक्रम किये। इसके परिणाम स्वरूप इनके रिश्तेदारों, पड़ोसियों,सामुदायिक नेताओं एवं संगठित धर्मों ने इनका बहिष्कार किया। यह एक तरह से अच्छा ही हुआ क्योंकि क्षुद्र राजनीति से इनके अलगाव से इन्हे पर्याप्त समय एवं संसाधन मिले ताकि वे सत्ता संरचनाओं से बातचीत कर सकें, कानूनी सुधार ला सकें एवं शैक्षणिक संस्थाओं,आश्रय गृहों एवं उन प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना कर सकें
जिनसे शिक्षको नर्सां, और अन्य कुशल कर्मियो की पहली पीढ़ी ने निकलना था (देसाई, 1977)। नारीवाद के पहले दौर के रूप में वर्गीकृत इस चरण मेंअंग्रेजी-शिक्षित महिलाओं ने बाल विवाह, सती प्रथा, कन्याशिशु हत्या के विरुद्ध संघर्ष किया एवं स्त्री शिक्षा एवं मताधिकार के लिए प्रयत्न किये।
इसने केवल उच्च जाति एवं उच्च वर्ग की महिलाओं को ही प्रभावित किया।भारतीय समाज सुधारकों द्वारा मराठी, हिंदी, गुजराती,मलयाली, तमिल एवं बांग्ला में रचित विशद साहित्य उनके अभूतपूर्व प्रयासो का साक्ष्य है। अंग्रेजी-शिक्षित सशक्तमहिलाओ की पहली पीढी़ स्वतंत्रंता पूर्वक महिला आन्दोलन की पूर्वजायें हुईं।
उनमे से अधिकतर लोगों ने ऑल इंडिया विमसें काफ्रंसें, यगं विमसें क्रिस्चियन
एसोसिएशन (वाई.डब्ल्यू.सी.ए.) एवं अंजुमन-ए-इस्लाम जैसी अग्रगामी महिला संगठनों को बनाने में अपनी ऊर्जा झोंक दी। ए.आई.डब्ल्यू.सी. की राजनैतिक एजेंडे में शामिल थे बाल विवाह के विरुद्ध लड़ाई, महिलाओं के मताधिकार के पक्ष में राय बनाना एवं मूलभूत कौशलों (जैसेः सिलाई,कढ़ाई, खाना पकाना, बाल बनाना, बच्चों की देखभाल,लोक एवं शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य, पत्र लेखन इत्यादि), का प्रशिक्षण देना
जिससे वे कुशल गृहिणी बन सकें। ए.आई.डब्ल्यू. सी. का सांस्कृतिक परिवेश ऊँची जातियों की हिन्दू स्त्रियों की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं के अनुकूल था। सभी व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए, गतिविधियों के क्षेत्र एवं लाभार्थियों की दृष्टि से वाई.डब्ल्यू.सी.ए. बहुधार्मिक थी मगर इसके निर्णय लेने वाली स्त्रियो राजनतेओं नौकरशाहो एवं प्रबंधकों की ईसाई पत्नियां थीं जो ब्रिटिश शासकों के काफी करीब थीं।
वाई.डब्ल्यू.सी.ए. ने नर्सों, टंककों, सचिवों एवं शिक्षकों को तैयार करने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चलाये तथा बेकरीउत्पादों, पुष्पसज्जा, पश्चिमी एवं भारतीय शास्त्रीय नृत्य एवं संगीत की कक्षाएं भी आयोजित की। अंजुमन ट्रस्ट महिला शिक्षा एवं कौशल विकास के लिए प्रतिबद्ध थी ताकि वे घर में रहकर कमा सकें. उन्हें परदे में रहकर काम करना पड़ता था।
वाई डब्ल्यू सी.ए. की महिला पदधारियों को बाहरी दुनिया का सामना नाम मात्र के पुरुष सुरक्षा के साथ करना पड़ा। ए.आई.डब्ल्यू सी. की स्त्रियों को परिवार के पुरुष सदस्य उनके सहायक थे। अंजुमन ट्रस्ट की महिला स्त्रिया केवल
मुस्लिम समुदाय से ही बात चीत करती थीं।
खान-पान की आदतों में अंतर, परिधान के नियम एवं भाषा की बाधा की वजह से वो सहयोग पूर्ण उपक्रम नहीं चला पाती थीं द्य द्यपि उनका नेतृत्व आर्थिक रूप से संपन्न तबके के पास था। गांधी जी के
नेतृत्व में अहिंसक तरीके से आयोजित विरोध की गतिविधियों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की व्यापक प्रतिभागिता को सुनिश्चित किया।
कांग्रेसी परिवारों की महिला सदस्यों ने पर्दा उतार फेंका तथा सार्वजनिक कार्यक्रमों, रैलियों, प्रदर्शनों में भाग लिया और कैदी जीवन के भी अनुभव लिए। कई परिवारों ने महिलांओं को राजनैतिक खतरे उठाने की अनुमति भी दी जिससे वो कालांतर में मजबूत स्त्रियों के रूप में उभरी।
कुछ उच्चशिक्षा प्राप्त महिलाएं शैक्षिक संस्थाओं, राजनयिक दस्तों, जनसेवा निगमों एवं निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में शामिल हुईं। बाकी महिलाएं प्रबुद्ध गृहिणियां बन गई जो अपनी बेटियों को शिक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थीं।
जो यात्रा उन्नीसवीं सदी के सामाजिक सुधारों से शुरू हो कर बीसवीं सदी के स्वाधीनता आंदोलन में अपने चरम पर पहुंची, वह वर्ग, जाति, पंथ, प्रजाति एवं धर्म का विचार किये बिना समानता, स्वतंत्रता एवं समान अवसर के संवैधानिक वादे को सुरक्षित करने में सफल हुई (कस्तूरी एवं मजूमदार, 1994)।
नारीवाद क्या है नारीवाद के दूसरे दौर में महिला सशक्तीकरण
नारीवाद क्या है महिला सशक्तीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे महिलाऐं जिंदगी की बागडोर अपने हाथों में लेतीं हैं, अपनी प्राथमिकताएं तय करतीं हैं कौशल प्राप्त करतीं हैं, आत्मविश्वास विकसित करतीं हैं, समस्याएं सुलझातीं हैं और आत्मनिर्भरता विकसित
करतीं हैं।
कोई किसी को सशक्त नहीं कर सकता, व्यक्ति स्वयं को सशक्त कर सकता है ताकि वह अपने जीवन में चुनाव कर सके औरअपनी बात कह सके। राज्य की संस्थाएं एवं नागरिक समाज उन प्रक्रियाओं की सहयोगी हैं जो महिला
आंदोलनके सामूहिक प्रयत्नों से महिलाओं के आत्म-सशक्तीकरण को पोषित कर सकें। नारीवाद क्या है
इस परिपेक्ष्य के साथ, आइये बीसवीं सदी के आखिरी चौथाई में महिलाओं के अधिकारों के लिए हुए आंदोलन को समझें। 1970 के दशक में आरम्भ हुए नारीवाद के दूसरे दौर में मध्यवर्गीय महिलाओं ने उन सामाजिक आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और केंद्रीय भूमिकाएं निभाईं जो विद्यार्थियों, युवाओं, कामगारों,किसानो,आदिवासियों, दलितों एवम नागरिक स्वाधीनताओं से जुडी थी।
वे हितैषी पुरुषो के पैतृकवाद एवम उच्चवर्गीय महिलाओं के ‘धर्मार्थ’ एवम ‘परोपकारी’ सामाजिक कार्यों से नफरत करतीं थी और स्वयं को उन्होंने महिला अधिकारों के योद्धा के रूप में घोषित किया।1975 के बाद की अवधि में महिला अधिकार आंदोलन महिलाओं के कई सरोकारों को सामने लेकर आया।
महिला आंदोलन में उस समय तक विभिन्न विचार धाराओं के विविध रंग सहअस्तित्व में थे। नवगठित स्वायत्त महिला समूह पूर्ववर्ती महिला संगठनों को विशिष्ट वर्गीय पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानते थे। उनके लिए वे अच्छे परिवारों की’साधन संपन्न महिलाऐं थी जो साधारण, गरीब और दुःखी महिलाओं के लिए कुछ परोपकारी सामाजिक कार्य किया करतीं थीं जिससे असमानता पर आधारित सम्बन्ध बदलने की बजाय और मजबूत होते थे और सामाजिक व्यवस्था यथावत बनी रही।
नारीवादी यह निश्चयपूर्वक कहते थे कि परंपरागत महिला अपने व्यक्तिगत जीवन में जाति व्यवस्थाके नियमों को मानती थी और सामान्यतः यथास्थिति को बनाये रखने के लिए अभिमुख थीं। नारीवाद क्या है
नारीवादी नेतृत्व एवं उसकी रणनीतियां
नारीवाद क्या है छटे दशक के बाद के वर्षां में भारतीय राजनीति का अतिवादीकरण हुआ जिससे नयी महिला मुक्ति आंदोलन की उत्पति हुई। युवाओं गरीब दहेतियो सीमातं किसानो शिक्षित दलितो आदिवासी परुष तथा महिलाओ तथा ओद्द्योगिक कामगारो का विद्राह, असख्ंय विशिष्ट अभिरुचि समूहों की स्थापना के रूप में अभिव्यक्त हुआ
जिसने स्थानीय जनता की आवश्यकताओं एवं मार्गो पर ध्यान दिया। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से प्रेरित समाज से सबसे निम्न तबके की जनता के विरोध आन्दोलन ने एक आक्रामक रास्ता चुन लिया था जिसके साथ ही वृहत राजनैतिक प्रक्रियाओ के शब्दाडम्बर में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे
अधिकृत कम्युनिस्ट पार्टियां केरल, प० बंगाल, आंध्र प्रदेश,बिहार एवं पजांब
में नक्सल बाडी़ आदांलेन के रूप में एक बडी़ राजनैतिक चुनौती का सामना कर रहे थे 1974 में गुजरात के मध्यवर्ग द्वारा भ्रष्टाचार, मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी,सट्टेबाजी, जमाखोरी, कालाबाजारी के विरूद्ध एक जन आंदोलन किया गया जिसे नवनिर्माण आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इसे बिहार में गाँधीवादी नेता जयप्रकश नारायण के नेत्ररत्व में सम्पूर्ण क्रांति आदांलेन के रूप में दोहराया गया।